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Abhilasha

  • book
    Written byAbhilashi
  • Book TitleAbhilasha

 

ISBN:978-93-48104-59-5

Publisher - Authors Tree Publishing

Pages - 64, Language - HINDI

Price - Rs.199/-  Rs.175/- Only

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Category - Self-Help/Poetry

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"अभिलाषा" सिर्फ़ कविताओं का संग्रह नहीं है; यह नाम और सार के बीच की प्रतिध्वनि है। लेखक की पहचान, पुस्तक के शीर्षक को प्रतिबिंबित करती है, एक दर्पण बन जाती है जिसके माध्यम से हम इच्छाओं की प्रकृति और अपने स्वयं के सत्य की खोज का पता लगाते हैं। ये कविताएँ एक व्यक्तिगत यात्रा हैं, जो 'अभिलाषा' का प्रतिबिंब है जो निर्माता और रचना दोनों को प्रेरित करती है।

About Author

Abhilashi

अभिलाषी जी का जन्म भाद्रपद मास की गणेश चतुर्थी, सन् 1949—यह वह पावन दिवस था जब मध्य प्रदेश के ग्राम बन, जिला भेलसा की धरती पर एक संवेदनशील हृदय ने जन्म लिया। बचपन से ही सुरों की मधुर धुनों और शब्दों के जादू ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया। बांसुरी और बैंजो उनके प्रिय संग साथी बने, और आम व महुआ के घने वृक्षों की शाखाओं पर बैठकर वे घंटों एकांत में अपनी धुनों में खोए रहते।
परंतु भाग्य ने एक कठोर परीक्षा ली—सन् 1957 में मातृविहीन हो जाने के बाद, बचपन का सूनापन और प्रकृति की गोद उनका सबसे बड़ा आश्रय बन गई। इन्हीं खामोशियों के बीच शब्दों की एक नई धारा जन्मी, और काव्य उनकी आत्मा का स्वर बन गया। जीवन को दिशा देने वाले प्रथम प्रेरणा स्रोत बने अखण्ड ज्योति पत्रिका, जिससे साहित्य और आध्यात्मिकता की इस यात्रा को नई ऊँचाइयाँ मिलीं, जब 1967 में वे गायत्री परिवार के संपर्क में आए। 1970 में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद, 1974 की वसंत पंचमी ने उनके जीवन को एक नया मोड़ दिया—परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी से उन्हें दीक्षा का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सरकारी सेवा के साथ-साथ उन्होंने 1978 में हिंदी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की।
1970 से 1978 तक नगर के बाहर स्थित सिद्धस्थान चिरौल वाली माता मंदिर पर साधना और एकांतवास का दिव्य संयोग मिला, जिसने उनके अंतर्मन को और अधिक आध्यात्मिक ऊर्जाओं से भर दिया। 27 जुलाई 1980, गुरुपूर्णिमा के शुभ अवसर पर, परम पूज्य गुरुदेव की उपस्थिति में उनका पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ। देवशयनी एकादशी के बाद आने वाली इस तिथि के संदर्भ में, समाज की रूढ़ियों और परिवार के विरोध के बावजूद, वे अपने पथ से कभी विचलित नहीं हुए और गुरु आज्ञा से समाज को एक आदर्श पथ पर आगे ले जाने की दिशा में सदैव कार्य करते रहे।
1981 से 1998 तक उन्होंने गायत्री प्रज्ञापीठ विदिशा में ट्रस्टी एवं परिव्राजक के रूप में कार्य किया, जीवन को एक सेवा मिशन में परिवर्तित कर दिया। 2008 में राजस्व विभाग से सेवा निवृत्त होने के उपरांत भी उनकी सक्रियता रुकी नहीं, बल्कि गायत्री परिवार में प्रांतीय समन्वयक (प्रशिक्षण) के रूप में उनकी साधना और सेवाभाव निरंतर जारी है।
उनकी लेखनी केवल शब्दों का संयोजन नहीं, बल्कि अनुभूतियों की गहराई से उपजी वह दिव्य धारा है, जो पाठकों के हृदय को झकझोर देती है। उनके साहित्य में संवेदनाओं की कोमलता, जीवन के अनुभवों की गंभीरता और आध्यात्मिक चेतना का संगम मिलता है।

 

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